हुसैन और उनका तिरंगा व्यक्तित्व...

हुसैन और उनका तिरंगा व्यक्तित्व...

मक़बूल फ़िदा हुसैन ने पेंटिंग्स की ही तरह अपनी शख़्सियत भी रंगी.
उसमें कुछ रंग ख़ालिस थे, कुछ मिलावटी. पेंटर यूँ भी कई रंगों को मिलाकर नया रंग तैयार करते रहते हैं. वे अनूठे रंगसाज़ थे और गज़ब के रंगबाज़ भी थे.
भारत में कामयाब आदमी को पूजने या उन पर थूकने की रीत नई नहीं है, जो ग़ैर-परंपरागत तरीक़े से कामयाब होते हैं उनके साथ ऐसा अधिक होता है.
हुसैन बेहतरीन कलाकार, पीआर मैनेजर और सेल्समैन तीनों एक साथ थे, और ख़ूब थे. ऐसा अदभुत संयोग कम ही देखने को मिलता है, और इन तीनों में किस में उन्नीस और किस में बीस थे, कहना मुश्किल है.
भारत का छोटा सा बच्चा भी सिंदूर पुते हुए पत्थर को देखते ही समझ जाता है कि यह हनुमान है, यह है प्रतीकों की ताक़त जिसका मैं इस्तेमाल करता हूँ
ये तीन अलग-अलग रंग हैं, हुसैन ने इन तीनों को इस तरह मिला दिया कि कहना मुश्किल हो गया कि कौन कहाँ शुरू होता है और कहाँ ख़त्म होता है. यही है हुसैन का जिनियस, बाज़ीगरी, कलात्मकता या चालबाज़ी, आप जो चाहे कहें.
हुसैन को समझने के लिए इन तीनों रंगों को मिलाकर, और कई बार अलग करके देखना होगा, फिर भी ज़रूरी नहीं है कि हम इस तिरंगे व्यक्तित्व को समझ लें.
इतिहास, दर्शन, भारतीय मिथकों की गहरी समझ रखने वाले हुसैन ने अपनी ब्रैंडिंग इटलेक्चुअल के तौर पर न करके, एक शोमैन के रूप में की थी, पेजथ्री सर्किट के वे सबसे उम्रदराज़ स्टार थे.
क़िस्सागो हुसैन
इंदिरा गांधी को दुर्गा बनाना, राह चलते दीवार रंग देना, ख़ाली पाँव घूमना, हाथ में डंडे के आकार की कूची लेकर इंटरव्यू देना, फ़कीरनुमा दाढ़ी रखना, लंदन के सबसे महँगे इलाक़े में रहना, पोतियों से भी कम उम्र की हीरोइनों के हुस्न की दीवानगी का तमाशा बनवाना, देवियों के न्यूड्स, रामायण-महाभारत पर पेंटिग सीरिज़, समंदर किनारे शास्त्रीय संगीत की धुन पर कूची चलाना, क्रेन पर खड़े होकर पेंटिंग, गजगामिनी, मीनाक्षी ए टेल ऑफ थ्री सिटीज़...
...और इन सबके ऊपर असली काम, सात दशकों में बनी हज़ारों बेहतरीन पेंटिंग्स, नीलामों में करोड़ों कमाना, मर्ज़ी आ जाए तो किसी जूते वाले, पान वाले, कबाब वाले को मुफ़्त में पेंटिंग दे देना, अपनी सारी कला को हमेशा के लिए कॉपीराइट-फ्री घोषित करना...
चाय पीने का मज़ा तो तभी आता है जब चाय दिखाई दे, ऊँगलियों को उसकी गर्मी महसूस हो
इस सूची में शायद आपको तीनों रंग दिख रहे होंगे. इसमें कुछ बनावटी था और कुछ सहज अनूठापन, और इन दोनों को भी अलग-अलग करके देखना कई बार संभव नहीं होता था.
हुसैन क़िस्सागो थे, मौक़े के हिसाब से कहानी बना लेते थे.
बीबीसी को दिए गए इंटरव्यू में ख़ाली पैर चलने के बारे में उन्होंने चार क़िस्से सुनाए, मई की तपती दोपहरी में मुक्तिबोध की शवयात्रा में चप्पल छोड़ देना और फिर कभी न पहनना, अपनी दिवगंत माँ के पैरों जैसा होने की वजह से उन्हें खुला रखना, पैर में शरीर के सारे नर्व होने की वजह से जूते न पहनना और फिर करबला में जलते रेत की तपिश को महसूस करने की ज़िद....
मुक्तिबोध का निधन मई में नहीं, सितंबर में हुआ था, तथ्यों का हिसाब रखे बिना गप्प हाँकने की वजह से कलाकार के तौर पर हुसैन की इज़्ज़त कम नही हो जाती, मगर पता चलता है कि हर वक़्त वे कुछ न कुछ गढ़ते रहते थे.
जटिल तिरंगा रूप
भारत में उनके इस जटिल तिरंगे रूप को न समझ पाने की वजह से कुछ लोगों ने उनका जीना हराम किया लेकिन इसे भी उन्होंने अपने तरीक़े से इस्तेमाल किया.
बीबीसी के ही इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि वे आत्म-निर्वासन में नहीं हैं, वे तो प्रोजेक्ट पूरा करने के लिए क़तर में हैं क्योंकि स्पॉन्सरशिप मिली है, उन्होंने भारत की नागरिकता छोड़ी नहीं है बल्कि ओवरसीज़ इंडियन सिटीज़नशिप ले ली है, वे जब चाहें भारत जा सकते हैं बल्कि जाएँगे भी वग़ैरह-वग़ैरह... मगर साथ ही उन्होंने अपने ख़िलाफ़ मुकदमों और राजनीतिक साज़िशों की बात भी की.
इस मामले में भी उन्होंने एक ऐसी तस्वीर पेश की जिसमें देखना वाला जो चाहे देख सकता है, उन्होंने न तो भारत छोड़ने वाले व्यक्ति के तौर पर ख़ुद को पेश किया, न ही बुढ़ापे में देश से निकाले गए एक कलाकार को मिलने वाली सहानुभूति को बटोरने में कमी रखी.
मैं पहला आदमी नहीं हूँ, सारे हिंदू शास्त्र, मूर्तिकला, चित्रकला को देखने के बाद मेरे दिमाग़ में जो छवि बनती है वही तो बनाऊँगा और वह छवि बहुत सुंदर है, वह कई बार नग्न है पर अश्लील नहीं है, अजंता, एलोरा, खजुराहो, कोणार्क देखिए, मेरे लिए वही आदर्श है
लंदन में हुसैन से दो लंबी मुलाक़ातों, औपचारिक इंटरव्यू और गपशप (जिसमें वे बड़ा-छोटा, ऊँचा-नीचा नहीं देखते थे) के दौरान ऐसा महसूस हुआ कि वे मामूली आदमी क़तई नहीं थे. अपने 95वें जन्मदिन पर उन्होंने जिस तरह हाथ मिलाया था उसकी गर्मजोशी किसी 25 साल के फौजी अफ़सर जैसी थी.
सुबह के दस बजे उनके मेफ़ेयर वाले अपार्टमेंट में पहुँचा तो वे घुटने के बल बैठकर कैनवस पर भगवान कृष्ण में नीला रंग भर रहे थे, मुझे देखकर कहा, "आप आ गए, सुबह की नमाज़ ख़त्म हुई, पाँच बजे से पेंट कर रहा था".
उन्होंने चाय मँगवाई, जब दो कपों में चाय हाज़िर हुई तो उन्होंने त्यौरियाँ चढ़ाकर कहा, "मेरे लिए कप में क्यों?" उनका कारिंदा भागकर आया और चाय उस गिलास में उंडेली गई जिसमें दो रुपए वाली चाय भारत में नुक्कड़ पर छोटू लाता है. बोले, "चाय पीने का मज़ा तो तभी आता है जब चाय दिखाई दे, ऊँगलियों को उसकी गर्मी महसूस हो."
खाँचे से बाहर
मेरे सामने ही उन्होंने विद्या बालन से फ़ोन पर बात की, एक कॉमेडी फ़िल्म की योजना बना रहे थे. अगर फ़िल्म बनती 96 वर्ष की उम्र में वे शायद दुनिया के सबसे उम्रदराज़ निर्माता-निर्देशक होते.
यह एक कलाकार की दाढ़ी है, इसे जो लोग मुसलमान की दाढ़ी जो समझते हैं, उनकी अक्ल का मैं क्या कर सकता हूँ
हिंदू देवियों को न्यूड पेंट करने के बारे में विस्तार से बात हुई, उन्होंने कहा, "मैं पहला आदमी नहीं हूँ, सारे हिंदू शास्त्र, मूर्तिकला, चित्रकला को देखने के बाद मेरे दिमाग़ में जो छवि बनती है वही तो बनाऊँगा और वह छवि बहुत सुंदर है, वह कई बार नग्न है पर अश्लील नहीं है, अजंता, एलोरा, खजुराहो, कोणार्क देखिए, मेरे लिए वही आदर्श है".
हुसैन कहते थे कि वे एब्सट्रैक्ट पेंटिंग में विश्वास नहीं करते, वे शायद अकेले पेंटर थे जिसका जनता से सीधा संवाद था, काम के ज़रिए भी, अपने रोज़मर्रा के जीवन में भी. उनके सारे प्रतीक और बिंब भारतीय या बल्कि हिंदू थे.
उन्होंने कहा, "भारत का छोटा सा बच्चा भी सिंदूर पुते हुए पत्थर को देखते ही समझ जाता है कि यह हनुमान है, यह है प्रतीकों की ताक़त जिसका मैं इस्तेमाल करता हूँ."
हुसैन न तो हिंदू विरोधी थे, न हिंदू भावनाओं को ठेस पहुँचाना उनका उद्देश्य था, मगर उन्हें लोगों को चिढ़ाने और उससे मिलने वाले प्रचार से परहेज़ नहीं था, वे जानते थे कि उन्होंने हिंदुओं को नहीं हिंदुवादी संगठनों को नाराज़ किया है.
उन्होंने हँसकर दाढ़ी पर हाथ फेरते हुए कहा था, "यह कलाकार की दाढ़ी है, इसे जो मुसलमान की दाढ़ी जो समझते हैं उनकी अक्ल का मैं क्या कर सकता हूँ."
1915 में महाराष्ट्र के पंढरपुर में निम्न मध्यवर्गीय परिवार में पैदा होकर लंदन में 96 वर्ष की उम्र में दुनिया को विदा करने वाले हुसैन ने इतना तो ज़रूर सिखाया है कि किसी व्यक्ति को, ख़ास तौर पर एक कलाकार को, एक खाँचे में फिट करने की कोशिश करना कितना फ़िज़ूल है.

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