मेरी प्रिय कविता

मैंने इतनी रचनाएं पढ़ी हैं, सुनी हैं कि अगर मैं उनके मूल्यांकन पर जाऊं तो शायद न्याय नहीं कर पाऊंगा और शायद कोई भी न्याय नहीं कर पाएगा. कुछ रह जाएगा, कुछ बच जाएगा. हर किसी के लिए कोई कविता इसलिए खास हो जाती है क्योंकि उससे जुड़ी स्मृतियां आपके लिए बहुत ख़ास होती हैं.
मुझे याद है कि बचपन में जब मैं स्कूल में था तो मैं फ़ैंसी ड्रेस शो में कवि बना था. आज इस तरह के आयोजन में कोई कवि बनने की कल्पना भी नहीं कर सकता, लेकिन हमारे ज़माने में लोग कवि भी बनते थे.

जो घनीभूत पीड़ा थी
बचपन के उस फैंसी ड्रेस शो में मैं जयशंकर प्रसाद बना था और उनकी ‘आँसू’ कविता की इन पंक्तियां का पाठ किया था. ये कविता आज भी मेरी प्रिय कविता है -
मस्तक में स्मृति-सी छायी
छायावादी कवि जयशंकर प्रसाद ने 'कामायनी' जैसी महाकाव्यात्मक कविता भी रची थी. 'आँसू' उनकी एक और मशहूर काव्य रचना 
दुर्दिन में आँसू बनकर
जो आज बरसने आयी।
ये मेरे क्रंदन में बजती
क्या वीणा? - जो सुनते हो
धागों से इन आँसू के
निज करुणा-पट बुनते हो।
रो-रोकर, सिसक-सिसककर
कहता मैं करुण-कहानी
तुम सुमन नोचते सुनते
करते जानी अनजानी।
प्रसाद जी की ‘आँसू’ कविता मुझे बहुत सुन्दर लगती है. ये कविता मुझे पूरी याद थी.
मेरे कविता पाठ की बड़ी तारीफ़ हुई थी और ख़ूब तालियां बजी थीं. सभी के लिए कविता की पसंद का एक ख़ास कारण होता है. वैसे तो अनेक महान कृतियां हैं. मुझे और भी कई कवि पसंद हैं. पंत जी बहुत पसंद हैं, निराला बहुत पसंद हैं. निराला जी की ‘कुकुरमुत्ता’ मुझे बहुत पसंद है.
मध्यकालीन संत कवि कबीर दास अपने समय से लेकर आज तक अपनी सामाजिक जुड़ाव वाली कविताओं की वजह से लोगों की रुचि के केंद्र में हैं.
लेकिन सबके बावजूद मुझे लगता है कि प्रसाद जी बहुत सुन्दर लिखते थे और उस तरह की कविता फिर देखने को नहीं मिली. लेकिन ‘आँसू’ से मेरी बचपन की मीठी स्मृतियां जुड़ी हैं, इसलिए उन्हें मैं सहेजकर रखता हूं.
लेकिन जब जीवन आगे बढ़ता है, सत्य से आपका सामना होता है तो कई सत्य आपके सम्मुख ज़्यादा मुखरित हो जाते हैं. फिर आपकी रुचि भी धीरे-धीरे बदल रही होती है.
वो एक पुरानी शराब की तरह परिपक्व होती है. अगर उस पैमाने पर देखें तो मुझे लगता है कि कबीर मुझे बहुत प्रिय हैं, हालांकि उसकी भी जड़ें बचपन में ही कहीं हैं. कबीर जितना आज भी मुझे अपील करते हैं, समय की कसौटी पर सरलता के साथ उतना गहरा प्रभाव छोड़ने वाला कवि मुझे उनके मुकाबले दूसरा नहीं नज़र आता. जब वो कहते हैं –
झीनी झीनी बीनी चदरिया ॥
काहे कै ताना काहे कै भरनी,
कौन तार से बीनी चदरिया ॥ १॥
इडा पिङ्गला ताना भरनी,
सुखमन तार से बीनी चदरिया ॥ २॥
आठ कँवल दल चरखा डोलै,
पाँच तत्त्व गुन तीनी चदरिया ॥ ३॥
साँ को सियत मास दस लागे,
ठोंक ठोंक कै बीनी चदरिया ॥ ४॥
सो चादर सुर नर मुनि ओढी,
ओढि कै मैली कीनी चदरिया ॥ ५॥
दास कबीर जतन करि ओढी,
ज्यों कीं त्यों धर दीनी चदरिया ॥ ६॥
तो कबीर का जो एक सत्य है, उसकी अनुभूति है और उसकी अभिव्यक्ति का अंदाज़ है, मुझे लगता है मेरे लिए सर्वोपरि है.
न मेरे पास मोरपंख का मुकुट था
न धनुष तोड़ने का पराक्रम
कंठ भी निरा कंठ ही था
किसी के ज़हर से
नीला न हो सका

क्षीरसागर में बिछी हुई
सुखद शय्या नहीं थी
नहीं थी सम्पत्ति से मैत्री

देवताओं में इर्ष्या जगानेवाली
ऐसी तपस्या न थी
जिसे भंग करने के लिए
तुम्हारे प्रेम का
अभिनय ज़रूरी होता

ययाति की तरह यौवन न था
लौटकर आता हुआ उत्साह से
और वह कौशल भी नहीं
जो काँपते प्रतिबिम्ब के बल पर
किसी की आँख को घायल करे

तुम्हे मंत्रमुग्ध कर देने को
मेरे पास बांसुरी न थी
और न वह छल
जो सिर्फ़ जल का आवरण है
तुम्हारी देह पर
तुम्हारे स्वप्न में
भीगा हुआ कमल है

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