हिंदी दिवस पर मेरी प्रिय कविता

अगर पसंदीदा कविता की बात की जाए तो मैं सबसे पहले पंडित सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' की कविता 'सरोज स्मृति' का उल्लेख करना चाहूंगा.

धन्ये, मैं पिता निरर्थक था,
कुछ भी तेरे हित न कर सका!
जाना तो अर्थागमोपाय,
पर रहा सदा संकुचित-काय
लखकर अनर्थ आर्थिक पथ पर
हारता रहा मैं स्वार्थ-समर।
शुचिते, पहनाकर चीनांशुक
रख सका न तुझे अत: दधिमुख।
क्षीण का न छीना कभी अन्न,
मैं लख न सका वे दृग विपन्न;
अपने आँसुओं अत: बिम्बित
देखे हैं अपने ही मुख-चित।

हम इस कविता को पढ़ते हुए पराजय, ग्लानि और वात्सल्य के कैसे निर्जन मोड़ तक हम जाते हैं.
मैंने जितनी बार भी इस कविता को पढ़ने की कोशिश की, हमेशा इसके नए अर्थ सामने आए.
ये एक ऐसी शोकगाथा है जो भारत की लाखों बेटियों की जीवनगाथा में विस्तार पा जाती है, जहां ठंडी क्रूरता और क्षय से भरी एक कठोर सामंती समाज संरचना आज भी मौजूद है.
आखिर हम अपनी बेटियों के साथ कितनी दूर तक चल पाते हैं.
निराला ने कविता में कहा भी है -
मैं कवि हूँ, पाया है प्रकाश
मैंने कुछ, अहरह रह निर्भर
ज्योतिस्तरणा के चरणों पर।
 कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की कविता ‘रश्मिरथी’ मुझे बहुत प्रिय है. ये एक लंबा-चौड़ा महाकाव्य है.
‘रश्मिरथी’ कर्ण की ज़िंदगी पर लिखी गई थी. उसमें एक प्रसंग है कि कृष्ण भगवान को जब दुर्योधन हस्तिनापुर में बातचीत के लिए बुलाते हैं ज़मीन के बंटवारे के विषय में. वो कृष्ण को बांधने की कोशिश करते हैं. पंक्तियां कुछ इस तरह हैं –
हरि ने भीषण हुंकार किया, अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले, भगवान् कुपित होकर बोले-
‘जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।
यह देख, गगन मुझमें लय है, यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल, मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।
बाँधने मुझे तो आया है, जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन, पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?
हिंदी के प्रख्यात कवि बाबा नागार्जुन की कविता 'गुलाबी चूड़ियाँ' मेरी तमाम पसंदीदा कविताओं में से एक सबसे प्रिय कविता है. 
तो ये कविता एक तरह का नाट्य है दो ऐसे पुरुषों को बीच में जिनके भीतर पिता का हृदय है. और जैसे स्त्रियों में तादात्म्य घटित होता है वैसे पिताओं में भी होता है. पिता का जो वात्सल्य है वो कम सुंदर नहीं होता. उसका जो स्निग्ध पक्ष होता है, ये कविता अपनी पूरी बनावट में उसे धीरे-धीरे उजागर कर देती है.
"अधेड़ उम्र का मुच्छड़ रोबीला चेहरा
आहिस्ते से बोला: हाँ सा'ब
लाख कहता हूँ, नहीं मानती है मुनिया
टाँगे हुए है कई दिनों से
अपनी अमानत
यहाँ अब्बा की नज़रों के सामने
मैं भी सोचता हूँ
क्या बिगाड़ती हैं चूड़ियाँ
किस जुर्म पे हटा दूँ इनको यहाँ से?
और ड्राइवर ने एक नज़र मुझे देखा
और मैंने एक नज़र उसे देखा
छलक रहा था दूधिया वात्सल्य बड़ी-बड़ी आँखों में" (गुलाबी चूड़ियाँ - नागार्जुन)

महाकवि सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' की एक कविता है ‘कुकुरमुत्ता’ जो तीन अप्रैल 1941 को उन्होंने लिखी और पहली बार ‘हंस’ के मई 1941 अंक में छपी थी.यह कविता मुझे बेहद पसंद है.
हिंदी, अंग्रेज़ी, उर्दू के मिले-जुले भाषाई प्रयोग की छवि इस कविता को सुगम बनाती है और वैचारिक स्तर पर निराला को साधारण जनों से जोड़ती है. इसीलिए यह कविता मुझे बेहद पसंद है. इस लंबी कविता का एक छोटा सा अंश है –
"आया मौसमखिला फ़ारस का गुलाब,बाग पर उसका पड़ा था रोब-ओ-दाब;वहीं गन्दे में उगा देता हुआ बुत्ता
पहाड़ी से उठे-सर ऐंठकर बोला कुकुरमुत्ता-
अबेसुन बेगुलाब,भूल मत जो पायी खुशबूरंग-ओ-आब,खून चूसा खाद का तूने अशिष्ट,डाल पर इतरा रहा है कैपिटलिस्ट!
कितनों को तूने बनाया है गुलाम,माली कर रक्खासहाया जाड़ा-घाम,हाथ जिसके तू लगा,पैर सर रखकर वो पीछे को भागा
औरत की जानिब मैदान यह छोड़कर,तबेले को टट्टू जैसे तोड़कर,शाहोंराजोंअमीरों का रहा प्यारा
तभी साधारणों से तू रहा न्यारा।
वरना क्या तेरी हस्ती हैपोच तू
कांटों ही से भरा है यह सोच तू
कली जो चटकी अभी
सूखकर कांटा हुई होती कभी।
रोज पड़ता रहा पानी,तू हरामी खानदानी।
चाहिए तुझको सदा मेहरुन्निसा
जो निकाले इत्ररूऐसी दिशा
बहाकर ले चले लोगों कोनहीं कोई किनारा
जहाँ अपना नहीं कोई भी सहारा
ख्वाब में डूबा चमकता हो सितारा
पेट में डंड पेले हों चूहेज़बां पर लफ़्ज प्यारा।
देख मुझकोमैं बढ़ा
डेढ़ बालिश्त और ऊंचे पर चढ़ा
और अपने से उगा मैं
बिना दाने का चुगा मैं
कलम मेरा नही लगता
मेरा जीवन आप जगता
तू है नकलीमैं हूँ मौलिक
तू है बकरामैं हूँ कौलिक
तू रंगा और मैं धुला
पानी मैंतू बुलबुला
तूने दुनिया को बिगाड़ा
मैंने गिरते से उभाड़ा
तूने रोटी छीन ली जनखा बनाकर
एक की दी तीन मैंने गुन सुनाकर। " (निराला की कविता 'कुकुरमुत्ता' से जो 1941 में लिखी गई थी)
यह कविता एक ऐसी कविता है जो बहुत साधारण भाषा में और गहरे अर्थों के साथ मनुष्य की भावनाओं को अभिव्यक्त करती है और सारी व्यवस्थाओं को तहस-नहस करती है सिर्फ़ एक कुकुरमुत्ता और गुलाब के माध्यम से. इसलिए मुझे यह कविता बेहद पसंद है.
मुझे कई शायर पसंद हैं. उनमें अहमद नदीम क़ासमी साहब हैं, नसीर अहमद नासिर हैं जो पाकिस्तान के हैं और आज के ज़माने के बहुत ही अच्छे शायर हैं. आज के दौर के जयंत परमार हैं जो अहमदाबाद में रहते हैं और पेंटर हैं. वो पेंटिंग के हवाले से बहुत अच्छी नज़्में लिखते हैं.
वैन गॉग की मशहूर पेंटिंग है 'पोटैटो ईटर्स'. उस पर उन्होंने एक नज़्म लिखी है -
जब भी गुज़रता हूं मैं सूर्यमुखी के पीले खेतों से
बिछा के अपनी आँखें काली मिट्टी में संभल-संभल कर चलता हूं
कुचल न जाएँ वैन गॉग के ताज मेरे पाँव के नीचे
जब भी गुज़रता हूं मैं सूर्यमुखी के पीले खेतों से
आलू खाने वाले यानी 'पोटैटो ईटर्स' बहुत मशहूर पेंटिंग है वैन गॉग की.
खूंटी पर लटकी एक लैंप की पीली-पीली रोशनी में
थकी-थकी सी शाम की पीठ 
दीवारों पर धुएं के बादल की परतें 
कमरे में लकड़ी का टूटा-फूटा टेबल
और पुरानी चार कुर्सियां 
टेबल पर मट्टी की प्लेट में 
उबले आलू की खुशबू 
आलू की खुशबू में भीगा कोमल हाथ
और मेरी दोनों आंखें भी 
ज़ायका लेती हैं आलू का रंगों में
मेरी बहुत प्रिय कविताओं में से एक कविता है शमशेर बहादुर सिंह की ‘उषा’.
‏काल तुझसे होड़ है मेरी, चुका भी हूं मैं नहीं, सुकून की तलाश शमशेर जी के प्रमुख कविता संग्रह हैं.
प्रात नभ था बहुत नीला शंख जैसे

भोर का नभ

राख से लीपा हुआ चौका
(अभी गीला पड़ा है)

बहुत काली सिल जरा-से लाल केशर से
कि धुल गयी हो

स्लेट पर या लाल खड़िया चाक
मल दी हो किसी ने

नील जल में या किसी की
गौर झिलमिल देह
जैसे हिल रही हो ।

और...
जादू टूटता है इस उषा का अब
सूर्योदय हो रहा है। (कविता संग्रह – ‘टूटी हुई बिखरी हुई’ से)
अव्वल तो ये कविता मुझे इसकी ऐंद्रिय संक्षिप्ति के कारण पसंद है. यानी इसमें जो दृश्य है, उसका बखान जिस तरह से किया गया है वो बहुत ही संश्लिष्ट क़िस्म का बखान है.
हम तो बाबुल तोरे बेले की कलियाँ
घर-घर माँगी में जाएँ
हम तो बाबुल तोरे खूँटे की गइयाँ
जित बाँधो तित जाएँ
हम तो बाबुल तोरे पिंजड़े की चिड़ियाँ
कुहुक-कुहुक रट जाएँ.
इस मर्मस्पर्शी पंक्तियों के साथ कुछ दूसरी पंक्तियाँ भी इसी गीत की पढ़ने लायक हैं जो पाठ-भेद के साथ मिलती हैं. यह क़ाबिलेग़ौर पंक्तियाँ इस तरह हैं –
ताँतों भरी मैंने गुड़िया जो छोड़ी
छूटा सहेलन का साथ
निमिया तले मोरा डोला जो उतरा
आया बलम जी का गाँव
अगर अभिधा वाले अर्थ से अलग हटकर हम इसमें कुछ व्यंजना ढूँढना चाहें तो आसानी से उस रहस्यवाद की ओर ताक सकते हैं, जो इश्क़ और माशूक़ के बहाने जीव और परमात्मा की बात करता है. फिर इसमें यदि ख़ुसरो का रंग मिला हो तो यह उसी सूफ़ियात की ओर इशारा करता है जिसमें उनके पीर-ओ-मुर्शिद निज़ामुद्दीन औलिया जैसे योग्य गुरु के साथ आत्मीय सामंजस्य मौजूद है.
वो एक पुरानी शराब की तरह परिपक्व होती है. अगर उस पैमाने पर देखें तो मुझे लगता है कि कबीर मुझे बहुत प्रिय हैं, हालांकि उसकी भी जड़ें बचपन में ही कहीं हैं. कबीर जितना आज भी मुझे अपील करते हैं, समय की कसौटी पर सरलता के साथ उतना गहरा प्रभाव छोड़ने वाला कवि मुझे उनके मुकाबले दूसरा नहीं नज़र आता. जब वो कहते हैं –
झीनी झीनी बीनी चदरिया ॥
काहे कै ताना काहे कै भरनी,
कौन तार से बीनी चदरिया ॥ १॥
इडा पिङ्गला ताना भरनी,
सुखमन तार से बीनी चदरिया ॥ २॥
आठ कँवल दल चरखा डोलै,
पाँच तत्त्व गुन तीनी चदरिया ॥ ३॥
साँ को सियत मास दस लागे,
ठोंक ठोंक कै बीनी चदरिया ॥ ४॥
सो चादर सुर नर मुनि ओढी,
ओढि कै मैली कीनी चदरिया ॥ ५॥
दास कबीर जतन करि ओढी,
ज्यों कीं त्यों धर दीनी चदरिया ॥ ६॥
तो कबीर का जो एक सत्य है, उसकी अनुभूति है और उसकी अभिव्यक्ति का अंदाज़ है, मुझे लगता है मेरे लिए सर्वोपरि है.
कबीर की एक कविता है – रहना नहीं देस बिराना है. यह कविता मेरे अनुसार अतीत में भी और आज भी कालजयी गुणों से युक्त है, सर्वग्राही है व प्रासंगिक तो है ही. कबीर कहते हैं कि लोभ-लालच, लिप्सा, कामना से युक्त यह संसार क्षणभंगुर एवं निस्सार है -
रहना नहीं देस बिराना है
यह संसार कागद की पुड़िया, बूँद पड़े गल जाना है।
यह संसार काँट की बारी, उलझ पुलझ मरि जाना है।।
यह संसार झाड़ और झाखर, आग लगे बरि जाना है।
कहें कबीर सुनो भाई साधो, सद्गुरु नाम ठिकाना है।।
यह देश अपना देश नहीं है. यह काग़ज़ की पुड़िया की तरह है, पीनी की एक बूँद पड़ी नहीं कि गल जाएगा अर्थात् बहुत नश्वर है. यह संसार काँटों का बगीचा है, इसमें जो उलझा, वह उसी में फँसकर मर जाएगा.
लोभ-लालच, भ्रष्टाचार से धन कमाने एवं उपभोग की बढ़ती हुई प्रवृत्ति की कबीर निर्मम आलोचना करते हैं और इस आलोचना से संतोष व आत्मिक सुख पर टिका हुआ संसार बनाना चाहते हैं. इसीलिए वो कहते हैं –
चाह मिटी, चिन्ता मिटी मनवा बेपरवाह।
जिसको कुछ नहीं चाहिए, वह है शहंशाह।।
रघुवीर जी की तमाम कविताओं में 'दे दिया जाता हूं' मुझे इसलिए सबसे अधिक पसंद है क्योंकि इसमें उनकी आनेवाली कविताओं की संवेदना की कसमसाहट है, अनुगूंज है.
बाद की कविताएं आधुनिक भारत की विसंगतियों को ज़्यादा मारक तरीके से व्यक्त करती हैं. उनकी विडंबना ज़ाहिर है.
सुनो सुनो बातों का शोर;
शोर के बीच एक गूंज है जिसे सब दूसरों से छिपाते हैं
- कितनी नंगी और कितनी बेलौस ! -
मगर आवाज़ जीवन का धर्म है इसलिए मढ़ी हुई करतालें बजाते हैं
लेकिन मैं,
जो कि सिर्फ़ देखता हूं, तरस नहीं खाता, न चुमकारता, न
क्या हुआ क्या हुआ करता हूं।
इस कविता में वह मानसिकता प्रकट है जो चीज़ों की अनदेखी करते हुए या लगातार अपने और दूसरों से झूठ या अर्धसत्य बोलते हुए लोगों की दुनिया बनाती है.
इसी में 'ज़िंदगी के अंतिम दिनों में काम करते हुए बाप' हैं जो 'जो कांपती साइकिलों पर भीड़ से रास्ता निकाल के जाते हैं.'
यहां 'बांझ औरतें भी हैं और कई देशों के अधभूखे बच्चे' भी.
मेरे पिता की स्पष्ट युवावस्था।
सिर्फ़ उनसे मैं ज़्यादा दूर-दूर हूँ
कई देशों के अधभूखे बच्चे
और बाँझ औरतें, मेरे लिए
संगीत की ऊँचाइयों, नीचाइयों में गमक जाते हैं
और ज़िन्दगी के अन्तिम दिनों में काम करते हुए बाप
रघुवीर जी की 'दे दिया जाता हूं' कविता 'सीढ़ियों पर धूप में' कविता संग्रह में संकलित है.
भीड़ में से रास्ता निकालकर ले जाते हैं
तब मेरी देखती हुई आँखें प्रार्थना करती हैं
और जब वापस आती हैं अपने शरीर में, तब वह दिया जा
चुका होता है।

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