आधा गाँव

आधा गाँव

(Adha Gaon)

The novel traces the dilemmas and confusions suffered by the Indian Muslim community in the wake of Indian Independence...

Author: Rahi Masoom Raza 



Not all of Indian Muslims went to Pakistan, in fact the never opted for it but by a stroke of destiny, not only the sub-continent as a macro level entity, but each and every village was virtually divided into two halves. ‘Gangoli’ the ancestral village of the author is one such half the village wherein both the ordinary Hindus and Muslims are trying to come to terms with the upheaval the politics of religious identity is causing. The Muslims all of a sudden, find themselves suspect and outsiders. The confusion and suffering of half the village is brought forth powerfully in the language of people exactly the way it is spoken in the streets, the author’s descriptions being the only occasion for polished literary prose. The interaction of these two registers of the language makes this novel both a delight and challenge to the reader as well as to the translator. The late Rahi Masoom Raza, author of this novel is also the writer of the television adaptation of the great Hindu epic- the Mahabharata.

You read Rahi Masoom Raza’s novel Aadha Gaon, besides other things, as a ‘national allegory’ in your essay The Harvest of Fear. Would you say that ‘the idea of nation or nationalism’, alien as it is to the residents of the village Gangauli, is responsible for ‘dividing’ them? Is it the idea of nation/nationalism that annihilates the village as it used to be?
राही मासूम रज़ा गंगा की लहरों की कहानियों को इतिहास की संज्ञा नहीं दे रहे हैं, वे  उन्हें इतिहास के बरक्स खड़ा कर रहे हैं………. इस एकरेखीय भँवर में अनेक धाराएँ हैं और इसलिए गंगा की लहरों की अनेक कहानियाँ इस इतिहास के लिए वह बहुलतावादी चुनौती है जिसे खारिज करके ही इसे अपने को स्थापित करना है. आधा   गाँव इसी विस्थापन के शनैः शनैः घटित होने की दास्तान है. 

राही मासूम रज़ा को प्रथम पुरूष में उद्धरित करते हैं.
गंगौली से मेरा संबंध अटूट है. वह एक गांव ही नहीं है. वह मेरा घर भी है. घर! यह दुनिया की हर बोली हर भाषा में है और यह उसका सबसे खूबसूरत शब्द है. इसलिए मैं उस बात को फिर दोहराता हूँ. मैं गंगौली का हूँ क्योंकि वह केवल गांव नहीं है.
ऐसा नहीं है कि गंगौली में मेलजोल के कोई आदर्श प्रतिमान बन गए हैं. वहाँ भिन्नताएं और समानताएँ स्पष्ट हैं. हाकिम अली कबीर ने तो पाक साफ बने रहने के लिए दरवाजे पर ही नहाने का हौज़ बनवा रखा है. गुलाम हुसैन जब हरनारायण प्रसाद के लिए मिठाई का टोकरा ले जाते हैं बातों ही बातों में बता देते हैं कि मिठाई झीगुरिया के यहाँ की है और उन्होंने छुई भी नहीं है. चमारों, राकियों, भरों, हज्जामों, जुलाहों की हैसियत के मुकाबले सैयदों, पठानों, ठाकुरों की अकड़ पूरे उपन्यास में देखी जा सकती है.
क्या इस पृष्ठभूमि के बिना राष्ट्रवादी राजनीति सफल हो सकती थी? हम इस किस्से में फिर से एक टर्मिनस पर हैं. क्या आधा गाँव के पठन इन पहले से उपलब्ध विभाजनों को अंडरप्ले नहीं करते ?
यह भी लेकिन एक दूसरे अध्ययन का ही विषय है कि यह पहले-से-विभाजित गाँव क्या उस सभ्यता का विकल्प हो सकता था जो उसके नकार पर विकसित हुई? क्या वह नेहरूवादी विकास मॉडल, इतिहास और राष्ट्रवाद (तीनों के मूल में यूरोपीय, औपनिवेशिक आधुनिकता है) के अतिक्रमण के बिना सदैव एक रह सकता था?
मुझे संदेह है कि आधा गाँव में इसका उत्तर सिर्फ ‘हाँ’ है.




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