चंद ख़ास शेर!
चंद ख़ास शेर.

निगाहों के तक़ाज़े चैन से मरने नहीं देते
यहाँ मंज़र ही ऐसे हैं कि दिल भरने नहीं देते
क़लम मैं तो उठाके जाने कब का रख चुका होता
मगर तुम हो कि क़िस्सा मुख़्तसर करने नहीं देते
फूल तो फूल हैं आँखों से घिरे रहते हैं
कांटे बेकार हिफ़ाज़त में लगे रहते हैं
वसीम बरेलवी
(मुख़्तसर- छोटा)

तुझसे वादा अज़ीज़तर रखा
वहशतों को भी अपने घर रखा
अपनी बे चहरगी छुपाने को
आइने को इधर उधर रखा
इस क़दर था उदास मौसमे-गुल
हमने आबे-रवाँ पे सर रखा
किश्वर नाहीद
अज़ीज़तर- ज़्यादा प्यारा, बे चहरगी- फ़ेसलैसनेस, मौसमे-गुल- फूलों का मौसम, आबे-रवाँ- बहता हुआ पानी
हिसाबे-उम्र का इतना सा गोशवारा है
तुम्हें निकाल के देखा तो सब ख़सारा है
हर पल ध्यान में बसने वाले लोग फ़साने हो जाते हैं

आँखें बूढ़ी हो जाती हैं ख़्वाब पुराने हो जाते हैं
झोपड़ियों में हर इक तल्ख़ी पैदा होते मिल जाती है
इसीलिए तो वक़्त से पहले तिफ़्ल सयाने हो जाते हैं
मौसमे-इश्क़ की आहट से ही हर इक चीज़ बदल जाती है
रातें पागल कर देती हैं दिन दीवाने हो जाते हैं
दुनिया के इस शोर ने अमजद क्या-कया हम से छीन लिया
ख़ुद से बात किए भी अब तो कई ज़माने हो जाते हैं
अमजदुल इस्लाम अमजद
हिसाबे-उम्र- उम्र का हिसाब, गोशवारा -पंचांग , ख़सारा- नुक़सान , फ़साने- कहानियाँ, तिफ़्ल -बच्चे,
ज़िंदगी ख़ैर कर तलब अपनी
मैं तेरा ज़हर पी के जीता हूँ
रेत के तपते सहराओं में दूर जितनी नदियां देखीं
पास आकर मालूम हुआ वो सारी रेत की लहरें थीं
डॉक्टर अब्दुल्ला अब्दुल्ला
सहराओं- रेगिस्तानों

वो मसीहा न बना हमने भी ख़्वाहिश नहीं की
अपनी शर्तों पर जिए उससे गुज़ारिश नहीं की
अम्बरीं हसीब
छोड़कर ज़िक्र मेरा छाप दिया है सब कुछ
और इस शहर के अख़बार से क्या चाहते हो
मंसूर उस्मानी
ये तेरा ताज नहीं है हमारी पगड़ी है
ये सर के साथ ही उतरेगी सर का हिस्सा है
ख़ुशबीर सिंह शाद
ख़ुशबू सा जो बिखरा है सब उसका करिश्मा है
मंदिर के तरन्नुम से मस्जिद की अज़ानों तक

ऐसी भी अदालत है जो रूह परखती है
महदूद नहीं रहती वो सिर्फ़ बयानों तक
आलोक श्रीवास्तव
महदूद- सीमित
ख़िज़ाँ की ज़र्द सी रंगत बदल भी सकती है
बहार आने की सूरत निकल भी सकती है
अभी तो चाक पे मिट्टी का रक़्स जारी है
अभी कुम्हार की नीयत बदल भी सकती है
अलीनी इतरत

ख़िज़ाँ-पतझड़, ज़र्द-पीला, रक़्स-नृत्य
मैं सरफ़राज़ हूँ तारीख़ के किरदारों में
मैं रही शोला-नवा शाम के बाज़ारों में
मैं मुहब्बत की अलामत मैं वफ़ा की तस्वीर
मैं ही चुनवाई गई क़स्र की दीवारों में
क़द्र यूसुफ़ की ज़माने को बताई मैंने
तुम तो बेच आए उसे मिस्र के बाज़ारों में
मीनू बख़्शी
Comments
Post a Comment