भोजपुरी सिनेमा का भटकाव

भोजपुरी सिनेमा का भटकाव


हर रोज एक दीवार का पोस्टर मुझे परेशान कर देता है। रेलवे स्टेशन के नजदीक की इस दीवार पर सिनेमा का 'चेहरा' चिपकाया हुआ होता है। इस चेहरे को देखकर मुझे हमेशा हैरानी भी होती है और दुख का अहसास भी। कई प्रश्न अनुत्तरित होकर मेरे सामने खड़े हो जाते हैं। 'निरहुआ सटल रहे', 'बीवी नंबर-1', 'बिरजुआ ढेला वाला', 'लड़ाई लऽ अंखियां ए लौंडे राजा'। ये उन भोजपुरी फिल्मों में से कुछ एक नाम है, जिन्हें मैं उस पोस्टर पर पढ़ता हूं। भोजपुरी भाषी होने के नाते मैं इस रंग को अच्छे से समझने की कोशिश करता हूं और हमेशा ही मुझे इसमें इस सिनेमा की उलझी तस्वीर ही नजर आती है।


कुछ साल पहले परिवार के साथ एक भोजपुरी फिल्म 'नदिया के पार...' देखने का अवसर मिला था, इस फिल्म से खासा लगाव इसलिए भी था क्योंकि इसकी शूटिंग मेरे गांव के पास ही हुई थी। एक मनमोहक प्रेम कहानी और पारिवारिक रिश्तों को केंद्र में रखकर बनी इस फिल्म को लोग आज भी याद करते हैं

केशव प्रसाद मिश्र के उपन्यास 'कोहबर की शर्त' के कुछ अंश पर 1982 में बनी इस भोजपुरी फिल्म पर 1994 में राजश्री प्रॉडक्शन की हिंदी फिल्म 'हम आपके हैं कौन' बनी। बॉलिवुड के लिए यह तो सिर्फ बानगी भर था, इसके बाद हिंदी सिनेमा ने कामयाबी के नए आयाम गढ़े लेकिन 'नदिया के पार' के साथ शुरू हुई भोजपुरी फिल्मों के नए दौर की कहानी आज सिर्फ द्वंद्व और उलझन में ही डूबी नजर आती है।कुछ साल पहले परिवार के साथ एक भोजपुरी फिल्म 'नदिया के पार...' देखने का अवसर मिला था, इस फिल्म से खासा लगाव इसलिए भी था क्योंकि इसकी शूटिंग मेरे गांव के पास ही हुई थी। एक मनमोहक प्रेम कहानी और पारिवारिक रिश्तों को केंद्र में रखकर बनी इस फिल्म को लोग आज भी याद करते हैं।


इसे बेहतर तरीके से इस बात से समझा जा सकता है कि इस साल राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता गुजराती फिल्म 'द गुड रोड' को ऑस्कर में सर्वोत्तम विदेशी फिल्म कैटिगरी में भारत का प्रतिनिधित्व करने के लिए इस साल भेजा गया है। बड़ी बात यह है कि बेहद कम बजट में बनी इस गुजराती फिल्म ने ‘विश्वरूप’, ‘भाग मिल्खा भाग’ और ‘द लंच बॉक्स’ जैसी बेहतरीन फिल्मों को पीछे छोड़कर यह मुकाम हासिल किया। फिल्म 10 करोड़ के बजट में बनी ‘द लंच बॉक्स’ से भी कम खर्च 2 करोड़ में पूरी हुई इसलिए यह बात और भी बड़ी हो जाती है। और सिर्फ गुजराती ही क्यों मराठी, बंगाली सिनेमा का भी एक विस्तृत इतिहास रहा है। और दक्षिण भारत की फिल्में भी आज पूरे देश में नाम कमा रही है लेकिन इन सबके बीच भोजपुरी सिनेमा अपने दायरे से बाहर आता दिखाई नहीं दे रहा है।

भोजपुरी सिनेमा द्वंद्व में डूबा है और इसकी संस्कृति को गहराई से समझने वाले दुख में। यूं तो भोजपुरी फिल्मों का इतिहास 50 साल से भी ज्यादा पुराना है। 50 साल पहले बिहार एक बिजनसमैन विश्वनाथ प्रसाद शाहबादी और नाजिर हुसैन की मेहनत के बदौलत 5 लाख रुपए में 'गंगा मईया तोहे पियरी चढ़ईबो' बनकर तैयार हुई और इसने 75 लाख की कमाई की। इन बीते 50 सालों में भोजपुरी सिनेमा 500 से अधिक फिल्में बना चुका है। लेकिन इन 50 सालों में भोजपुरी सिनेमा फूहड़पन का परिचायक भी बन चुका है। ऐसे में कई कलाकार तो खुद की असली पहचान भी छिपाना शुरू कर चुके हैं। लेकिन इन सबके साथ ही जबरदस्ती परोसे जाने वाली अश्लीलता की बदनामी को भी इसके साथ चस्पा कर दिया है। यह वजह है कि हिरोइनें इन फिल्मों में काम करने से कतराने लगीं। कमाई का गिरता स्तर कई डायरेक्टरों के लिए ऐसी नौबत लेकर आया कि वह बोरिया बिस्तर समेटने पर मजबूर हो गए।

वजह साफ थी- या तो वक्त के साथ बहो या विदाई को स्वीकार करो। 20 करोड़ भोजपुरी भाषी आबादी के आगे सिनेमा की एक ही तस्वीर बना दी गई है। नतीजा, कुछ अलग करने की चाहत पाले निर्माता रहे ही नहीं। एक बड़े निर्माता के मुताबिक सिनेमा हर साल 100 करोड़ का कारोबार कर रहा है और यह आगे बढ़ेगा भी। लेकिन यह 100 करोड़ की कमाई आखिर किस संस्कृति को बढ़ावा दे रही है?


पिछले दशक में भोजपुरी फिल्मों का कारोबार जब दोबारा जिंदा हुआ तो मनोज तिवारी, रवि किशन, दिनेश लाल यादव 'निरहुआ', रानी चटर्जी, रिंकू घोष, पाखी हेगड़े जैसे कलाकारों को स्टारडम मिला। मनोज तिवारी, रवि किशन, दिनेश लाल यादव, श्वेता तिवारी जैसा कलाकारों को बॉलिवुड में अवसर मिला और इन्होंने नाम कमाया तो अजय देवगन जैसे कलाकारों ने भी भोजपुरी सिनेमा में काम किया।


इस बीच अहम कुछ अहम सवाल भी खड़े होते हैं। क्या पैसे कमाने की चाहत में यह इंडस्ट्री चोली और दुपट्टे का साथ छोड़ेगी? क्या भोजपुरी सिनेमा अन्य भाषाई फिल्मों से सबक लेते हुए कुछ अलग और नया कर सकेगा? क्या मनोज वाजपेयी, प्रकाश झा जैसे भोजपुरी माटी के बड़े नाम इससे जुड़ेंगे? ऐसे और भी कई प्रश्न हैं जिनके बीच भोजपुरी सिनेमा काफी वक्त तक जूझता रहेगा।

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